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चिकित्सा क्षेत्र में कमीशन प्रणाली: मरीजों की जेब पर भारी पड़ता डॉक्टर-लैब गठजोड़

चिकित्सा क्षेत्र में कमीशन प्रणाली: मरीजों की जेब पर भारी पड़ता डॉक्टर-लैब गठजोड़

 चिकित्सा जगत में कमीशन का खेल: मरीजों की जेब पर बोझ


आज के समय में चिकित्सा सेवा को सेवा नहीं बल्कि व्यापार के रूप में देखा जाने लगा है। डॉक्टरों का मरीजों के प्रति दायित्व और नैतिकता कहीं न कहीं इस व्यापारिक सोच के चलते खोती जा रही है। इस लेख में हम चर्चा करेंगे कि किस प्रकार डॉक्टर और अन्य चिकित्सा संस्थानों के बीच का कमीशन सिस्टम मरीजों की जेब पर भारी पड़ता है और यह सिस्टम कैसे कार्य करता है।

Doctor


 पैथोलॉजी टेस्ट और कमीशन का खेल


पैथोलॉजी लैब में होने वाले टेस्ट की असली लागत और मरीज से वसूली जाने वाली राशि के बीच का अंतर अक्सर चौंकाने वाला होता है। उदाहरण के लिए, अगर किसी टेस्ट की कुल लागत 50 रुपये है, तो मरीज से 300 रुपये तक वसूले जा सकते हैं। इस 300 रुपये में से डॉक्टर को 30% से 50% तक का कमीशन दिया जाता है। मतलब, लगभग 150 रुपये सीधे डॉक्टर की जेब में जाते हैं।


यह समस्या तब और गंभीर हो जाती है जब डॉक्टर केवल उन्हीं रिपोर्ट्स को मान्यता देते हैं, जो उनकी द्वारा निर्दिष्ट पैथोलॉजी लैब से आई होती हैं। यदि मरीज किसी अन्य डायग्नोस्टिक सेंटर से टेस्ट कराता है, तो कई बार डॉक्टर उन रिपोर्ट्स को मानने से इनकार कर देते हैं। जबकि मशीन और तकनीशियन अधिकतर एक जैसे ही होते हैं, जिससे रिपोर्ट्स में कोई बड़ा अंतर नहीं होना चाहिए। 


 रेडियोलॉजी और इमेजिंग में भारी मुनाफा


एक्स-रे और एमआरआई जैसे रेडियोलॉजिकल टेस्ट्स में भी यही स्थिति है। एक्स-रे फिल्म की लागत मात्र 20-40 रुपये होती है, लेकिन मरीज से 300-500 रुपये तक वसूले जाते हैं। इसी प्रकार, एमआरआई की कुल लागत 300-500 रुपये हो सकती है, जबकि मरीज से 4000-6000 रुपये तक वसूले जाते हैं। 


इन टेस्ट्स में भी डॉक्टरों को मोटा कमीशन मिलता है। इस कमीशन सिस्टम के चलते, मरीजों को बिना आवश्यकता के भी महंगे टेस्ट्स करवाने के लिए मजबूर किया जाता है। 

 दवाइयों में डॉक्टर और फार्मा कंपनियों की मिलीभगत


दवाइयों में भी कमीशन का खेल आम बात है। कोई भी दवा जैसे कि मल्टीविटामिन सिरप की वास्तविक लागत 30-35 रुपये हो सकती है, लेकिन उस पर MRP 180 रुपये तक लिखी होती है। डॉक्टरों को इन दवाइयों पर 50-60% तक का कमीशन मिलता है। 


इसके अलावा, कुछ विशेष दवाइयां या मेडिकल उपकरण जैसे कि IV सेट या वेनफ्लोन की MRP 90 रुपये होती है, जबकि उनकी वास्तविक लागत मात्र 20 रुपये होती है। इस प्रकार की दवाइयां और उपकरण केवल उन मेडिकल स्टोर्स पर मिलते हैं जो डॉक्टर के साथ गठजोड़ में होते हैं। दूसरे मेडिकल स्टोर्स पर ये दवाइयां आसानी से उपलब्ध नहीं होतीं, जिससे मरीज को मजबूरन महंगी दवाइयां खरीदनी पड़ती हैं। 

 फार्मा कंपनियों और डॉक्टरों के बीच सांठगांठ


फार्मा कंपनियां भी इस खेल में पीछे नहीं हैं। वे डॉक्टरों को ब्रिज यात्रा, घरेलू सामान, और नगद राशि जैसी कई सुविधाएं देती हैं। इसके अलावा, अगर डॉक्टर किसी मरीज को किसी अन्य बड़े अस्पताल या विशेषज्ञ के पास भेजते हैं, तो उन्हें वहां से भी मोटा कमीशन मिलता है। 


इस प्रकार के कमीशन सिस्टम ने चिकित्सा क्षेत्र में एक नई तरह की "रिश्वतखोरी" को जन्म दिया है। डॉक्टर और फार्मा कंपनियों के बीच की इस सांठगांठ का सीधा नुकसान मरीजों को होता है। 

मरीजों के लिए विकल्प और समाधान


इस स्थिति का समाधान निकालना बहुत जरूरी है ताकि चिकित्सा क्षेत्र में नैतिकता और सेवा की भावना को पुनः स्थापित किया जा सके। इसके लिए मरीजों को कुछ कदम उठाने की आवश्यकता है:


1. **विकल्पों की तलाश करें**:

 किसी भी मेडिकल टेस्ट या दवाई की कीमत की तुलना करें। अगर कोई डॉक्टर आपको किसी विशेष लैब या मेडिकल स्टोर से ही सेवा लेने के लिए कहता है, तो उसकी मंशा पर सवाल उठाएं।


2. **दूसरे डॉक्टर की राय लें**: 

अगर कोई डॉक्टर आपको महंगे टेस्ट्स करवाने के लिए कहता है, तो दूसरे डॉक्टर से राय लें। यह संभव है कि दूसरा डॉक्टर उसी टेस्ट को गैरजरूरी मानते हुए उससे बचने की सलाह दे।


3. **जागरूकता बढ़ाएं**:

 मरीजों को इस प्रकार के कमीशन सिस्टम के बारे में जागरूक होना चाहिए। अगर आप इस प्रकार के किसी अनुभव का सामना करते हैं, तो अन्य मरीजों को इसके बारे में अवगत कराएं।


4. **कानूनी सहायता लें**: अगर आपको लगता है कि आपके साथ धोखा हुआ है, तो कानूनी सहायता लें। चिकित्सा सेवा में नैतिकता की रक्षा के लिए कड़े कानूनों की आवश्यकता है।


 निष्कर्ष


चिकित्सा क्षेत्र में कमीशन सिस्टम ने सेवा की भावना को कहीं न कहीं व्यापारिक दृष्टिकोण में बदल दिया है। यह स्थिति न केवल नैतिकता के खिलाफ है, बल्कि मरीजों की आर्थिक स्थिति पर भी भारी पड़ती है। जब तक इस प्रकार की अनैतिक प्रथाओं पर रोक नहीं लगाई जाएगी, तब तक मरीजों की जेब पर इस तरह का बोझ पड़ता रहेगा। इसे रोकने के लिए सरकार, चिकित्सा संस्थान, और समाज को मिलकर प्रयास करने की आवश्यकता है।

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